हमारे शरीर की संरचना कुछ ऐसी है कि जहां कहीं भी(शरीर के अंदर) कोई सूचना को पहुंचाना हो तो मस्तिष्क तुरंत सक्रिय हो जाता है और उस सूचना को पहुंचाता है और इस प्रकार से हमारा शरीर हर तरह से मस्तिष्क के बनाए बंधन से बंधा हुआ है,मस्तिष्क के अंदर विचारों का ऐसा संगम है जहां से आदर्शवाद भी पलता है और दुनिया की वास्तविकता भी झलकती है।
लेकिन ऊहापोह में इंसान हो जाता है, कि किसे चुने
अमूमन ऐसा होता है कि व्यक्ति सोचता है कि उसका दिल कुछ और कह रहा है और दिमाग कुछ और कह रहा है,ऐसे में वो किसकी सुने,लेकिन गहराई में अगर जाया जाए,तो मालूम चलेगा की दिल का काम तो केवल धड़कने से है,वो भला सोच कैसे सकता है।
ऐसे में ये साज़िश केवल एक ही कर सकता है और वो है दिमाग़,जी हां,दिमाग ही शरीर का वो पहलू है जो व्यक्ति को भ्रमित कर देता है क्योंकि हर सवाल का इसके पास दो अलग जवाब होता है,और आमतौर पर ऐसा देखा जाता है की आदर्शवादी विचारधारा और वास्तविकता या प्रैक्टिकल थिंकिंग दोनों ही इसमें बसे हुए हैं,इंसान जिस सोच को हावी होने देता है वैसी ही ज़िन्दगी जीने की कोशिश करता है,और सबसे मज़ेदार बात ये है कि ये दोनों सोच एक ही शरीर के होते हुए भी भिन्न होते है,एक के पास करुणा,दया ,ईमानदारी का भाव सदैव रहता है और एक सोच हमेशा डिप्लोमेटिक थिंकिंग को बढ़ावा देते हुए अपना बेहतर चाहता है।
ऐसे में इस युग में जीने के लिए हमें एक सूक्ष्म रेखा ज़रूर खींचनी होगी जो दोनों सोच के बिल्कुल मध्य से होकर जाती हो,जिससे हम आदर्श विचारों पर भी अमल करें और वास्तविकता भी ना भूलें।
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